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क्या किसी के पास पेंसिल है?

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क्या किसी के पास पेंसिल है?

ब्रिटेन में सजग होइए! लेखक द्वारा

पेंसिल बहुत ही सस्ती और हलकी होती है। और जब चाहे इसका इस्तेमाल किया जा सकता है। यह बड़े आराम से जेब में आ जाती है। इसे इस्तेमाल करने के लिए ना तो बिजली की ज़रूरत होती है और ना ही यह पेन की तरह स्याही छोड़ती है। और-तो-और, इसके निशान को भी बड़ी आसानी से मिटाया जा सकता है। पेंसिल से ही बच्चे लिखना सीखते हैं और जाने-माने चित्रकार बेजोड़ कलाकृतियाँ बनाते हैं। हममें से ज़्यादातर लोग इसे हमेशा अपने पास रखते हैं, ताकि ज़रूरत पड़ने पर झट-से कुछ लिख सकें। जी हाँ, यह मामूली-सी पेंसिल, दुनिया-भर में लिखाई के लिए सबसे ज़्यादा काम आनेवाली और सबसे किफायती चीज़ों में से एक है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि इसकी शुरूआत कैसे हुई? आइए इसके ईजाद और इसमें क्या-क्या सुधार किए गए, इसकी लाजवाब कहानी के बारे में पढ़ें।

ब्लैक लेड

बात 16वीं सदी की है। उत्तरी इंग्लैंड के लेक डिस्ट्रिक्ट नाम की घाटी में, बॉरोडेल के पहाड़ी ढलान के नीचे एक अनोखे काले खनिज का ढेर पाया गया। हालाँकि यह खनिज दिखने में कोयले जैसा था, पर यह कोयले की तरह जलता नहीं था। और कागज़ पर रगड़ने से यह एक चमकदार, काला निशान छोड़ जाता था और इस निशान को आसानी से मिटाया भी जा सकता था। शुरू-शुरू में, इस खनिज को ब्लैक लेड (काला सीसा) कहा जाने लगा। इसकी सतह चिकनी होती थी, इसलिए लोग इसके छोटे-छोटे टुकड़ों को भेड़ के चमड़े में या इसकी छोटी-छोटी छड़ी को धागे से लपेटकर इस्तेमाल करते थे। आज तक कोई यह पता नहीं लगा पाया है कि ब्लैक लेड को लकड़ी के बीच में डालने की तरकीब किसकी थी। सन्‌ 1560 के दशक तक, ये कच्ची पेंसिलें यूरोप महाद्वीप में पहुँच चुकी थीं।

देखते-ही-देखते ब्लैक लेड की खुदाई करके, इसका निर्यात किया जाने लगा, ताकि चित्रकारों में पेंसिल की बढ़ती माँग को पूरा किया जा सके। सत्रहवीं सदी के आते-आते, लगभग हर कहीं लोग इसका इस्तेमाल करने लगे थे। साथ ही, पेंसिल बनानेवालों ने ब्लैक लेड पर कई परीक्षण किए, ताकि पेंसिल को और भी बेहतर बनाया जा सके। बॉरोडेल की खदानों से एकदम शुद्ध ब्लैक लेड मिलता था और उसे खोदकर निकालना भी बड़ा आसान था। इसलिए यह चोरों और काला-बाज़ारी करनेवालों की नज़रों का खास निशाना बन गया। इसी के चलते सन्‌ 1752 में, ब्रिटिश संसद ने यह फरमान जारी किया: अगर कोई ब्लैक लेड की चोरी करेगा, तो उसे जेल की सज़ा दी जाएगी या फिर उसे दूर-दराज़ के किसी द्वीप में सज़ा काटने के लिए भेज दिया जाएगा।

सन्‌ 1779 में स्वीडिश रसायन-वैज्ञानिक, कार्ल डब्लू. शेला ने एक हैरतअँगेज़ खोज की। वह यह थी कि जिस खनिज को सभी ब्लैक लेड मान रहे थे, उसमें ज़रा भी लेड नहीं होता। इसके बजाय, वह शुद्ध कार्बन का एक मुलायम रूप है। इसके दस साल बाद, जर्मन भूवैज्ञानिक आब्राहाम जी. वरनर ने उसे ग्रेफाइट नाम दिया। यह नाम यूनानी शब्द ग्राफीन से लिया गया है, जिसका मतलब है, “लिखना।” जी हाँ, इसका नाम लेड पेंसिल ज़रूर है, पर इसमें लेड ज़रा भी नहीं होता।

पेंसिल को बेहतर बनाना

बहुत सालों तक, पेंसिल के उत्पादन में सिर्फ अँग्रेज़ों का दबदबा था, क्योंकि ब्रिटेन में मिलनेवाला ग्रेफाइट इतना शुद्ध होता था कि उसे सीधे पेंसिल की तरह इस्तेमाल किया जा सकता था। यूरोप महाद्वीप में मिलनेवाला ग्रेफाइट कम दर्जे का था। इसलिए वहाँ के पेंसिल बनानेवालों ने पेंसिल लेड को बेहतर बनाने के लिए कई अलग-अलग परीक्षण किए। जैसे, फ्रांसीसी इंजीनियर नीकोला-ज़ाक कोन्टे ने पिसे हुए ग्रेफाइट को चिकनी मिट्टी के साथ मिलाया और फिर उससे पतली-पतली सलाइयाँ बनाकर भट्ठी में पकाया। हर बार उसने कभी ग्रेफाइट की, तो कभी मिट्टी की मात्रा में बदलाव किया। इस तरह, उसने काले रंग के अलग-अलग शेडवाली पेंसिलें तैयार की। आज भी पेंसिल तैयार करने के लिए यही तरीका इस्तेमाल किया जाता है। सन्‌ 1795 में, कोन्टे ने अपनी खोज का पेटेंट अधिकार हासिल किया।

उन्‍नीसवीं सदी में, पेंसिल बनाने का कारोबार फलने-फूलने लगा। कई जगहों पर ग्रेफाइट की खोज की गयी। इनमें साइबेरिया, जर्मनी और वह इलाका भी शामिल है, जो आज चेक रिपब्लिक का एक भाग है। पहले जर्मनी में और फिर अमरीका में, पेंसिल बनाने के कई कारखाने खोले गए। अब मशीनों के ज़रिए, बड़ी तादाद में पेंसिलें बनने लगीं, जिस वजह से इसका दाम एकदम गिर गया। बीसवीं सदी की शुरूआत तक स्कूल के बच्चे भी इनका इस्तेमाल करने लगे थे।

आज की पेंसिल

हर साल, दुनिया-भर में लाखों-करोड़ों की तादाद में पेंसिलें बनायी जाती हैं। इसलिए इसकी शक्ल-सूरत को और भी निखारा गया है। साथ ही, लिखने और चित्र बनाने के लिए तरह-तरह की पेंसिलें बनायी जा रही हैं। एक लकड़ी की पेंसिल से करीब 56 किलोमीटर लंबी लाइन खींची जा सकती है और 45,000 शब्द लिखे जा सकते हैं। आजकल मेकेनिकल पेंसिल भी बनाए जाते हैं, जो दिखने में बिलकुल पेन के जैसे होते हैं। ये धातु या प्लास्टिक के बने होते हैं और इनमें लेड की पतली-पतली सलाइयाँ डाली जाती हैं। इसलिए इन पेंसिलों को छीलने के बजाय, सिर्फ पीछे से दबाना पड़ता है। इसके अलावा, रंगीन पेंसिल (कलर पेंसिल्स) में ग्रेफाइट के बदले, प्राकृतिक चीज़ों से बने रंगों और कृत्रिम रंगों का इस्तेमाल किया जाता है।

अलग-अलग कामों में इस्तेमाल होनेवाली मामूली मगर टिकाऊ पेंसिलों का इस्तेमाल आज भी बरकरार है। इसलिए आनेवाले सालों में भी, चाहे आप घर पर हों या काम की जगह पर, आपको बार-बार यही सवाल सुनायी देगा: “क्या किसी के पास पेंसिल है?” (7/07)

[पेज 19 पर बक्स/तसवीर]

पेंसिल के अंदर लेड कैसे डाला जाता है?

सबसे पहले, ग्रेफाइट के बारीक चूरे और चिकनी मिट्टी को पानी में मिलाकर एक घोल तैयार किया जाता है। इस घोल को धातु की बनी एक पतली नली में डाला जाता है। जब दूसरी तरफ से लेड की पतली-पतली सलाइयाँ बाहर निकलती हैं, तो वे सेंवई की तरह दिखती हैं। इसके बाद, इन सलाइयों को सुखाया जाता है। और जब ये सूख जाती हैं, तो इन्हें काटकर भट्ठी में तपाया जाता है। फिर, इन्हें गरम तेल और मोम में डुबाया जाता है। पेंसिल बनाने के लिए आम तौर पर देवदार की लकड़ी इस्तेमाल की जाती है, क्योंकि इसे छीलना आसान होता है। लकड़ी को पट्टियों में काटकर समतल किया जाता है। लकड़ी की हर पट्टी की लंबाई एक पेंसिल के बराबर, चौड़ाई कई पेंसिलों के बराबर और मोटाई आधी पेंसिल के बराबर होती है। पट्टियों में खाँचे बनाए जाते हैं, फिर उनमें लेड की सलाइयाँ डाली जाती हैं और ऊपर से दूसरी पट्टी को गोंद से चिपकाकर कसकर दबाया जाता है। जब गोंद सूख जाता है, तब एक-एक पेंसिल को काटकर अलग किया जाता है। इन पेंसिलों को तरह-तरह का आकार दिया जाता है, फिर बालू-कागज़ (सेंड-पेपर) से घिसा जाता है, उन्हें रंगा जाता है और आखिर में, कंपनी का ट्रेडमार्क और दूसरी जानकारी का ठप्पा लगाया जाता है। अब ये पेंसिलें इस्तेमाल के लिए पूरी तरह से तैयार होती हैं और इसका जोड़ भी नज़र नहीं आता। कभी-कभी पेंसिलों के एक सिरे पर रबर भी लगाया जाता है।

[चित्र का श्रेय]

Faber-Castell AG

[पेज 20 पर बक्स/तसवीर]

मुझे कौन-सी पेंसिल इस्तेमाल करनी चाहिए?

पेंसिल का चुनाव करने के लिए, उसकी एक तरफ छपे अक्षरों या नंबरों पर ध्यान दीजिए। इनसे आप पता लगा सकते हैं कि पेंसिल का लेड कितना नरम है या कितना सख्त। पेंसिल का लेड जितना ज़्यादा मुलायम होगा, उसका निशान उतना ही गाढ़ा होगा।

HB पेंसिल में मीडियम-ग्रेड का लेड होता है, यानी इसका लेड न तो ज़्यादा सख्त होता है और ना ही ज़्यादा मुलायम। इस पेंसिल को अलग-अलग कामों में इस्तेमाल किया जाता है।

B का मतलब है कि पेंसिल का लेड मुलायम है। 2B और 6B जैसे नंबर दिखाते हैं कि पेंसिल कितनी नरम है। जितना बड़ा नंबर होगा, पेंसिल का लेड उतना ही मुलायम होगा।

H का मतलब है कि पेंसिल का लेड सख्त है। इसके साथ जितना बड़ा नंबर होगा, पेंसिल का लेड उतना ही सख्त होगा, जैसे 2H, 4H, 6H वगैरह।

F अक्षर दिखाता है कि इस पेंसिल की लिखाई बहुत ही बारीक होती है।

कुछ देशों में यह बताने के लिए कि पेंसिल का लेड कितना मुलायम या सख्त है, अलग तरह के निशानों का इस्तेमाल किया जाता है। मिसाल के लिए, अमरीका में HB के बदले 2 नंबर इस्तेमाल किया जाता है। इस तरीके में पेंसिल पर जितना बड़ा नंबर लिखा होता है, उसका लेड उतना ही ज़्यादा सख्त होता है।